स्वस्ति शर्मा की कविता
रावण शिव का परम भक्त था
बहुत बड़ा था ज्ञानी
दस सर बीस भुजाओं वाला
पर था राजा अभिमानी
न ही किसी की वह सुनता था
करता था वह मनमानी,
औरों को पीड़ा देने की
आदत रही पुरानी।
एक बार धारण कर उसने
तन साधु का निशानी,
छल से सीता मैया हरने की
हरकत की बचकानी।
पर नारी का हरण न अच्छा
कह कहकर थक हारी रानी,
भाई विभीषण ने भी समझाया
लात पड़ी थी खानी।
रामचन्द्र से युद्ध हुआ तो
याद आ गई नानी,
शिव को याद किया विपदा में
अपनी व्यथा बखानी।
जान बूझ कर बुरे काम की
जिसने मन में ठानी
शिव ने भी सोचा ऐसा पर
अब ना दया दिखानी।
नष्ट हुई सारी अमानत
लंका पड़ी गँवानी,
मरा राम के हाथों रावण
यह थी दशहरे की कहानी।