पन्नालाल सेठ हीरे के बहुत बड़े व्यापारी थे। प्रभु की कृपा से धन भी था, पुण्य भी, और यश भी। प्रतिदिन अपने द्वार पर वे कम से कम 50 भिक्षुकों को भीख दे कर भेजते थे।
एक दिन सुबह पन्नालाल सेठ के मन में विचार आया, कि आज मैं अपने द्वार पर आने वाले हर भिखारी को, 1 – 1 हीरा दे कर विदा करूँ। प्रात: का विचार था, और भला भी। पन्नालाल सेठ ने उस पर अमल करने की सोची। दुकान पर आते ही मुनीम जी को अपनी मंशा बता कर, उनसे मुठ्ठी भर हीरे एक कपड़े पर रख कर देने को कहा।
मुंशी जी थोड़ा सकपकाए। पर सेठ का मन बन गया है, ऐसा समझ कर, 50 हीरे के करीब एक कपड़े में रख कर सेठ जी के पास रख दिए।
कुछ समय बीतने पर एक भिखारी आया। सेठ जी अपने पास से चुन कर एक हीरा उसके हाथ में रखा। उन्हें लगा था, हीरा मिलते ही भिक्षुक अपनी आँखों पर विश्वास नहीं करेगा। अब उसे कभी भीख मांगने की आवश्यकता नहीं, ऐसा विचार उसके जीवन को कितना बदल देगा!
पर, आश्चर्य! ऐसा कुछ भी न हुआ। भिखारी ने अपने हाथ को देखा, फिर सेठ जी को, और कुछ बुदबुदाता स वहाँ से चला गया।
अगले भिखारी के साथ भी ऐसा ही हुआ, और उसके अगले भिखारी के साथ भी। सेठ जी ने सोचा था, कि बाजार तक जा कर तो इन लोगों को हीरे का मोल पता चल जाएगा। तब अवश्य वापिस आएंगे। पर 2 घंटे बीत गए। ऐसा भी कुछ न हुआ।
जब छठा भिखारी भी हीरे को पा कर, सर नीचा कर के जाने के लिए मुड़ा, तो सेठ जी से रहा नहीं गया। उन्होंने उसे वापिस बुलाया और पूछा, “क्यूँ भाई, रोज़ तो सिक्के पा कर आशीर्वाद दे कर जाते हो। आज ये बुदबुदाते हुए क्यूँ जा रहे हो?”
भिखारी बोला, “महाराज, आप तो दाता हैं। जो देंगे, सो हम लेंगे। पर हमें भला चमकीले पत्थरों से क्या काम। घर पर बच्चे भी नहीं हैं, जो इन से खेलें। कंचे के लिए बहुत से चाहिए, और गेंद के लिए ये छोटे हैं। बताइए, इनका हम क्या करेंगे?”
सेठ जी ने यह सुन कर जोर से ठहाका लगाया। फिर बोले, “क्षमा करना भाई। मुझे लगा था आज कुछ दिल बहलाव की वस्तु दूँ, बाकी रोटी पैसा तो रोज़ ही पाते हो। रुको, तुम सिक्के ही ले कर जाओ।”
सेठ जी ने अपना कंकड़ वापिस ले लिया और भिखारी को सिक्का दे दिया। वह खुशी खुशी चला गया।
उसके जाने के बाद सेठ जी ने मुनीम जी को बुलाया, और इशारे से सारे हीरे उठा कर ले जाने को कहा। मुनीम जे पुराने थे। हीरे उठाए और तिजोरी में अपनी जगह पर जा कर रख दिए।
कुछ देर बाद सेठ जी ने मुनीम जी से पूछा, “आप जानते थे न, ऐसा कुछ होने वाला है?”
मुनीम जी ने हाँ की मुद्रा में सर हिलाते हुए कहा, “नहीं, निश्चित तौर पर नहीं, पर अंदेशा था।”
“तब आपने मुझ से कुछ कहा क्यूँ नहीं?”
मुनीम जी ने सर नीचे ही रखे हुए कहा, “अब कहूँ, तो आप सुनेंगे?”
सेठ जी ने कहा, “अवश्य”
मुनीम जी बोले, “कोई भी लेने वाला हो, वह वही लेगा, जिसे वह मूल्यवान समझता है।
आपके पास सबसे मूल्यवान वस्तु क्या है? ये हीरे। आज आपने ये हीरे मन खोल कर दान करने की सोची। कितना अथाह प्रेम आपके भीतर उस क्षण बहा होगा, जब आपने यह निश्चय लिया। आप अपनी सबसे मूल्यवान वस्तु उनके साथ बांटना चाहते थे। वे इतने सालों से आपके यहाँ से सिक्के या रोटी पा रहे हैं। उन्होंने ये नहीं सोचा, कि सेठ अगर कोई कंकड़ जैसी वस्तु दे रहे हैं, तो अच्छी ही होगी। उन्होंने ये देखा कि ये सिक्का नहीं है, और मुझे सिक्का चाहिए।
जब कोई व्यक्ति ऐसा करता है, तो देने वाला अपनी सबसे मूल्यवान वस्तु वापिस रख कर पाने वाले को वही देता है, जो वह चाहता हो। इस से पाने वाले के 2 नुकसान होते हैं। उसे कम मूल्यवान वस्तु मिलती है, और उस रिश्ते का मूल्य भी कम हो जाता है। रिश्ते की घनिष्ठता भी क्षीण होती है।
मैं मुनीम हूँ। मेरे पास सबसे मूल्यवान वस्तु है, मेरा ज्ञान। उसे मैं परामर्श के रूप में आपको भेंट करता हूँ। इतने साल से हम साथ काम करते हैं। जब आप मेरी सबसे मूल्यवान वस्तु ग्रहण करते हैं, तो केवल आपका धन नहीं बढ़ता, ये रिश्ता भी घनिष्ठ होता है।
किसी भी मैत्री में, व्यक्ति के पास जो सबसे मूल्यवान भेंट है, वह है, मित्र के हित की सच्ची इच्छा। किसी के लिए सच में शुभेच्छा करना। व्यक्ति इस शुभेच्छा को, अपना मत प्रकट कर के अपने मित्र को भेंट करता है। उसका मत सही या गलत हो सकता है। जिन तथ्यों पर वह अपने मत को आधारित करता है, वे सच या झूठ हो सकते हैं, परंतु उस की मित्र के हित की इच्छा सदा सत्य होती है। जब मित्र उस शुभेच्छा को अस्वीकार कर के, मित्र से अपना कोई काम निकलवाने का प्रयत्न करता है, या मित्र का अपनी बुद्धि के अनुसार लाभ उठाना चाहता है, तब उसे अपने मित्र से काम तो मिल जाता है, पर सच में अपने दुख में दुखी होने वाला, अपने सुख में प्रसन्न होने वाला नहीं रहता। ये कितने घाटे का सौदा है, ये पता भी नहीं चलता। एक दिन, हम अपने आप को एकाकी पाते हैं। हर लेन -देन में, हम हर बार कम मूल्यवान वस्तु मांगते हैं, और फिर सोचते हैं कि हम गरीब क्यूँ हैं?
जब हम पहली बार प्रेम करते हैं, तो अपना सर्वस्व, अपने मन की सबसे कोमल अनुभूतियाँ प्रेम के पात्र को अर्पित करते हैं। जब लगता है कि प्रेम में इसकी नहीं, रूप की, धन की, कुल की अपेक्षा है, तब प्रेम वापिस रख लिया जाता है। जो चाहिए, सो मिल जाता है, पर जो सच में मूल्यवान है, वह खो जाता है।”
सेठ जी ने हंस कर कहा, “आपने तो मेरे मन का बोझ हल्का कर दिया मुनीम जी। अब ये भी बताते जाइए, कि पाने वाला अपनी क्षति कैसे रोके? मैं केवल इन भिखारियों की मूर्खता पर क्षुब्ध था, पर आपकी बात सुन कर समझ में आता है कि मूर्ख मैं भी कम नहीं रहा हूँगा।”
मुनीम जी ने हंस कर कहा, “आप जब दुनिया पर विश्वास करेंगे सेठ जी, जो लोग स्वत: आपको अपने मन की सबसे अमूल्य भेंट देंगे। आप केवल उसे ग्रहण करना सीखिए। मुझे ये चाहिए, ऐसा सोच कर हीरे के बदले सिक्के मत मांगिए। बस। ”