नमक: हिन्दी कविता Hindi Poem: Namak

एक दिन नमक ने ठानी
नहीं चलेगी तानाशाही

पानी मेरा हर लेते हैं
वे मुझको सब छल लेते हैं

सूर्यदेव को लगायी गुहार
उन्होंने भी सुनी पुकार

“जब मैं सागर में बहता हूँ
चिरकोटि तक मैं रहता हूँ

मनुष्य मुझे पकड़ लेता है
पानी मेरा हर लेता है

फिर मेरा अंत निश्चित है
संशय नहीं इसमें किंचित है

कभी फल, कभी अचार
भाजी कभी, और कभी दाल

चाहे किसी प्रकार हो देव
अंत मेरा होता सदैव

आप अगर जल नहीं हरेंगे
तब ही मेरे प्राण बचेंगे।”

सूर्यदेव ने कहा “ज़रूर!
नमक से पानी न होगा दूर!”

उस दिन से कमाल हो गया!
आदमी बेहाल हो गया!

दिन दिन बीते, पानी न जाए
नमक कोई अब कैसे बनाये?

निकाले बड़े बड़े पतीले
आग जलाई उनके नीचे

अब तो नमक सकपकाया
पानी भी बहुत घबराया

बहुत लगा लकड़ी और तेल
नमक का भाव सब से तेज़

लोग नमक अब कम थे खाते
किफ़ायत से थे काम चलाते

नमक के अब सब गुण गाते थे
रासायनिक विधा समझाते थे

मिटटी का तेल धीरे से हँसता
दाम से ही है मूल्य बनता।

  • Nidhi Arora