इक शहर हो घर जैसा – योगेंद्र परांजपे की कविता

बहुत कम हो दिन स्कूल के, छुट्टियां भरपूर
एक शहर हो घर जैसा, घर से काफी दूर ‍॥

हर कोने पर चाट का ठेला, हर मौसम में आम मिले,
हर महीने लगता हो मेला, जिसमें छोटी ट्राम चले ,
मीठे बेर, पक्के जामुन, आधे कच्चे जाम मिले ।
गरमागरम समोसे हों‌ और रसगुल्ले मशहूर,
एक शहर हो घर जैसा, घर से काफी दूर ‍॥

आइसक्रीम की बड़ी दुकानें, चाकलेट की भरमार हो,
लकड़ी का हो कैरम, नकली पैसों का व्यापार हो,
पिट्ठू, गुल्ली डंडा और मस्ती में चार यार हों ।
क्रिकेट की गेंदों से कर दें शीशे चकनाचूर,
एक शहर हो घर जैसा, घर से काफी दूर ‍॥

चारों तरफ हरियाली हो, मैं ऊँचे-ऊँचे पेड़ चढूँ,
चाचा चौधरी-पिंकी-बिल्लू के किस्से मैं खूब पढूँ,
कलम पकड़कर हाथों में, नये पात्र मैं रोज़ गढ़ूं।
सबको कविताएं सुनने को कर दूँ मैं मजबूर
एक शहर हो घर जैसा, घर से काफी दूर ‍॥